सावित्री की ऑडियो कहानी

राधा की ऑडियो कहानी

सुंदर नगरी की तंग गलियों में, 205 बस स्टैंड के पास, सावित्री और राधा नाम की दो महिलाएं रहती हैं। उम्र पचास पार कर चुकी है, लेकिन जज़्बा ऐसा कि मोहल्ले की हर समस्या से सीधे टकरा जाती हैं। इन दोनों की पहचान उनके खुले विचारों और साफ़ बोलचाल से है। वर्षों से ये अपने मोहल्ले के लिए छोटे-छोटे मगर ज़रूरी काम करती आई हैं। कभी नाले को ढकवाने के लिए MLA ऑफिस के चक्कर लगाती रहीं, तो कभी सड़क बनवाने के लिए पूरी बस्ती को साथ लेकर खड़ी हो गईं। एक बार एक बच्चा खुले नाले में गिर गया था और जान चली गई थी। वहीं पास की दीवार से टकरा कर एक युवक की आंख चली गई थी। इन घटनाओं ने सावित्री और राधा को झकझोर दिया। उन्होंने तय किया कि वे पीछे नहीं हटेंगी। मोहल्ले वालों को साथ लिया और तब तक कोशिश की जब तक नाला ढक कर पक्की सड़क नहीं बन गई। आज मोहल्ले के लोग उसी सड़क से सुरक्षित घर जाते हैं।

लेकिन उनका काम यहीं खत्म नहीं हुआ। बस स्टैंड पर जहां पहले छांव नहीं थी, वहाँ सावित्री ने पिनकुल और राधा ने नीम का पौधा लगाया। अब वहीं पेड़ हैं जो राहगीरों को छाया देते हैं। राधा की एक छोटी सी दुकान है, वहीं से उन्होंने अपने प्रयासों की शुरुआत की। गर्मियों में जब प्यास से लोग बेहाल दिखते, तो राधा और सावित्री को लगता कि कुछ करना चाहिए। यही सोचकर उन्होंने अपने घर के सामने एक मटका रखने का फैसला किया, जिसमें कोई भी आकर पानी पी सके। यह फैसला उन्होंने Delhi Rising Campaign के तहत लिया, जो दिल्ली के विभिन्न इलाकों में नागरिकों को साथ लेकर स्थानीय स्तर पर बदलाव लाने का काम करता है। अभियान के तहत ‘फ्री वाटर पॉइंट’ शुरू करने का मौका आया तो इन दोनों महिलाओं ने न केवल हां कहा बल्कि उसे अपनी ज़िम्मेदारी बना लिया।

अब हर दिन सुबह और शाम दोनों मटके में पानी भरा जाता है। राधा सुबह टंकी से पानी भरती हैं, मटका धोती हैं, और उसे ढक कर तैयार रखती हैं। शाम को सावित्री यही प्रक्रिया दोहराती हैं। हर दो-तीन दिन में मटके की गहन सफाई की जाती है ताकि पानी पीने वाले को कोई परेशानी न हो। लोगों ने शुरुआत में मटके को लेकर संदेह जताया—कहीं कोई उसे फोड़ न दे, या उसमें कुछ डाल न दे। लेकिन इन महिलाओं ने हार नहीं मानी। एक बार मटका सच में टूट गया, तो उन्होंने दूसरा मटका लाकर रख दिया। आज मोहल्ले के बच्चे खुद मटके की रखवाली करते हैं।

राधा बताती हैं कि उनके पास कोई बड़ा पैसा नहीं, लेकिन अगर कोई प्यासा आता है और बोतल खरीदने की उसकी हैसियत नहीं है, तो वो उसको प्यासा नहीं रहने देतीं। वो दुकान के एक कोने में बाल्टी में पानी भरकर भी रखती हैं, ताकि किसी को मटका भारी लगे तो वहां से भी पानी ले सके। सावित्री कहती हैं, “हमें तो बस चरखा चलाना आता है, लेकिन समाज का चरखा भी तो चलाना है ना।”

इन्होंने कोई पर्यावरण या सामाजिक कार्य की पढ़ाई नहीं की, लेकिन इनका काम खुद एक पाठशाला है। ये महिलाएं बताती हैं कि बदलाव सिर्फ बड़े प्रोजेक्ट्स से नहीं आते, वो छोटे मटकों से भी शुरू हो सकते हैं। मटका सिर्फ पानी का पात्र नहीं है, वो एक प्रतीक है—प्यासी दिल्ली में उम्मीद का। Delhi Rising जैसे अभियानों के साथ मिलकर, सावित्री और राधा न सिर्फ पानी दे रही हैं, बल्कि इंसानियत भी सींच रही हैं। वे बताती हैं कि यह सब कुछ दिखावे के लिए नहीं है—ये उनके मोहल्ले के लिए एक सेवा है।

आज जब लोग उनके घर के पास से गुजरते हैं, तो रुक कर मटके का पानी पीते हैं, पेड़ की छांव में सांस लेते हैं और एक बार इन दो औरतों को नज़र भर देख लेते हैं—जिन्होंने चुपचाप, बिना शोर के, अपने शहर को थोड़ा बेहतर बना दिया। यही है असली दिल्ली राइजिंग।